History of Mandi District in Hindi – मंडी जिला का इतिहास

Brief History of Mandi District in Hindi

History of Mandi District in Hindi – मंडी जिला का इतिहास

जिले के रूप में गठन  – 15 अप्रैल 1948 , जिला मुख्यालय  – मंडी

जनसंख्या (2011 में) – 9,99,518(14.58%), जनसंख्या   घनत्व (2011 में)  – 253

ग्रामीण जनसंख्या (2011 में ) – 9,36,894 (93.74%)

कुल क्षेत्रफल  – 3950 वर्ग कि.मी. , साक्षरता दर (2011 में) – 82.81%

लिंग अनुपात (2011 में) – 1012 , शिशु लिंगानुपात (2011 में) – 912

कुल गाँव – 3338 (आबाद गाँव – 2833) , ग्राम पंचायतें – 473

विकास खंड – 11 , विधानसभा सीटें – 10 , लोकसभा क्षेत्रमंडी

दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर (2001-2011)10.89% , भाषा – मंडयाली, सुकेती, हिंदी, बालड़ी सरकाघाटी

उप मण्डल – 12 , तहसील – 17 , उप-तहसील – 14

नगर पालिकाएं – 7 (नगर निगम: – मंडी नगर पंचायत :- करसोग, रिवालसर, सरकाघाट नगर परिषद : – जोगिंदरनगर, नेरचौक, सुंदरनगर)


मण्डी जिला दो रियासतों सुकेत और मण्डी रियासतों से मिलकर बना है। सुकेत रियासत की स्थापना 765 ई. में वीरसेन ने की। मण्डी रियासत की स्थापना सुकेत राजवंश के राजा बाहुसेन ने 1000 ई. में की थी।

वीरसेन :-

कनिंघम के अनुसार वीरसेन बंगाल से आया था और सतलुज के साथ वाले क्षेत्र में सुकेत रियासत की स्थापना की। वीरसेन ने जब यहाँ आया तो यह क्षेत्र में छोटे-छोटे ठाकुरों और राणाओं में बंटा हुआ था। वीरसेन ने पहले कुणुधार से अपने अभियान की शुरुआत की। दूसरे अभियान में वीरसेन कोटी देहर के ठाकुरों को परास्त कर नंज, सोलाल, बेलू और थाना आगरा के क्षेत्र पर अधिकार जमाया। इसके साथ उन्होंने दो किले काजुन और मागरा का निर्माण करवाया।

इसके उपरांत वीरसेन ने जिन ठाकुरों को अपने अधिकार में लिया, उनमें प्रमुख थे :-‘सुरही का ठाकुर’,‘खांदलीकोट का ठाकुर‘। इन विजयों के बाद सेन ने सुरही के पांगणा क्षेत्र में एक महल का निर्माण करवाया तथा वहीँ पर राजधानी स्थापित की। उसने ‘चाबासी’ किले का निर्माण करवाया तथा इसे आधार बना कर अन्य किलों – बंगा, थुंग, जलौड़ी, हिमरी, नारायणगढ़, छजवाला, मागरु, मानगढ़, रघुपुर, जांज,रायगढ़, फतेहपुर, श्रीगढ़, मधुपुर, भोमथाज, रायसन, गदोह तथा कोट मंडी पर भी अधिकार जमाया जो संभवत: उस पर कुल्लू रियासत के भाग थे।

कुल्लू के राजा ने वीरसेन को रोकने का प्रयास किया लेकिन हार का सामना करना पड़ा तथा वीरसेन ने उसे बंदी बना लिया। कुल्लू विजय के उपरांत वीरसेन ने पण्डोह, नाचियां तथा चिड़याओं, रयान, जुराहांड़ी, संतगढ़, चच्योट तथा स्वापुरी किलों पर भी अपना अधिकार जमा लिया। पश्चिम की तरफ वह ‘सिकंदर की धार‘ की ओर बढ़ा तथा हाटली के राणा को पराजित किया।

अपनी विजय के ख़ुशी मनाने के लिए उसने वीरकोट किले का निर्माण करवाया। वीरसेन ने काँगड़ा रियासत के साथ अपनी सीमा निर्धारित करने हेतु सीर खड्ड के समीप ‘वीरा किले’ का निर्माण करवाया। वीरसेन के बाद उसका पुत्र धीरसेन गद्दी पर बैठा, जिसका शासनकाल अल्पावधि का था। उसके बाद विक्रमसेन राजा बना।

विक्रमसेन :-

विक्रमसेन धार्मिक मनोवृति का राजा था। कुछ समय पश्चात् वह अपने भाई त्रिविक्रम सेन को राज्य का भार सौंप कर स्वयं तीर्थ यात्रा के लिए हरिद्वार चला गया। उसके भाई ने उसकी अनुपस्थिति से अनुचित लाभ उठाने का प्रयत्न किया। कुल्लू इस समय सुकेत के अधीन था। त्रिविक्रम ने कुल्लू के राजा हस्तपाल के साथ मिलकर विक्रमसेन के विरुद्ध षड़यंत्र रचा। विक्रमसेन ने क्योंथल के राजा से सहायता मांगी। ज्यूरी के पास युद्ध हुआ, त्रिविक्रम सेन और कुल्लू का राजा दोनों मारे गए और विक्रमसेन ने अपने राज्य को वापिस जीत लिया।

लक्ष्मणसेन :-

यह धरत्रीसेन का पौत्र था। लक्ष्मणसेन ने कुल्लू पर आक्रमण कर वजीरी रूपी, वजीरी लगसारी और वजीरी परोल के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया। उस समय कुल्लू का राजा ‘हमीरपाल’ था। लक्ष्मणसेन के दो पुत्र चन्द्रसेन और विजयसेन थे। इनमें चन्द्रसेन नि:स्तान था तथा उसके उपरांत विजयसेन गद्दी पर बैठा।

साहूसेन (1000 ई.) :-

साहुसेन और बाहुसेन विजयसेन के पुत्र थे। दोनों के सम्बन्ध आपस में बिगड़ने की वजह से छोटा भाई बाहूसेन सुकेत छोड़कर कुल्लू के मंगलौर चला गया और अपनी छोटी सी रियासत स्थापित की।

विलास सेन :-

यह दुष्ट प्रवृति का था इसलिए कर्मचारियों ने उसे विष देकर मार दिया और उसके भाई समुद्रसेन को गद्दी पर बिठाया। विलास सेन की रानी अपने शिशु पुत्र सेवन्त सेन (सेमन्त सेन) को लेकर सराज चली गई और गुप्त रूप से जमींदार के यहाँ रहने लगी। समुद्रसेन ने चार वर्ष राज किया। उसके बाद उसके दो पुत्र रूप हेबंत सेन और बलवंत सेन गद्दी पर बैठाये परन्तु उनकी जल्दी ही मृत्यु हो गई।

अधिकारियों ने विलास सेन के पुत्र की खोज करके उसे सेवन्त सेन नाम से गद्दी पर बैठाया। उसने उक्त जमींदार को, जिसके यहाँ उसकी माँ तथा वह छिपकर रहे थे, जागीर दी और वहां पर रानी कोट के नाम से एक किला बनाया। अब उस स्थान का नाम रानी -का -कोट है। यह क्षेत्र गढ़ चवासी में है। सेवन्त सेन के पश्चात दिलावर सेन, बिलादर सेन, उगर सेन, विक्रमसेन, मंत्र सेन राजा हुए।

मदन सेन ( 1240 ई.) :-

मंत्र सेन के पश्चात राज परिवार में कोई भी ऐसा योग्य व्यक्ति नहीं था, जो राज्य का कार्यभार चला सकता। अत: अधिकारियों ने एक “मियाँ मदन” को राजगद्दी के लिए चुना। मदनसेन ने पंगाणा के उत्तर में मदनकोट दुर्ग का निर्माण करवाया। मदनसेन ने गुम्मा और द्रंग के राणाओं को हराकर नमक की खानों पर कब्जा कर लिया। मदनसेन ने कुल्लू पर पुनः कब्जा कर मनाली से बजौरा तक का इलाका राणा भोसल को दे दिया।

मदनसेन ने बटवाड़ा के राणा मांगल को हराया जिससे राणा मांगल को सतलुज पार भाग कर मांगल रियासत की स्थापना करनी पड़ी। मदनसेन के शासन में सुकेत रियासत अपनी समृद्धि के चरम पर पहुँच गया था।

मदनसेन ने 1240 ई. में पंगाणा से राजधानी बदलकर लोहारा (बल्हघाटी) में स्थापित की। उसने 25 वर्ष राज किया। मदनसेन के बाद भी अनेक राजा हुए जिनका कार्यकाल बहुत ही कम रहा दारीर सेन, धरत्री सेन, पर्वत सेन, काम सेन, संग्राम सेन, महान सेन, हेवंत सेन।

पर्वत सेन (द्वितीय) :-

पर्वत सेन ने अपने एक पुरोहित पर झूठा आरोप लगाया की उसका अनुचित सबंध एक बांदी (दासी) से है। पुरोहित ने अपनी निर्दोषिता के बारे में राजा से कहा। फिर भी वह अपमान को सहन न कर सका और उसने आत्महत्या कर ली। इसके बाद राजा का स्वास्थ्य गिरने लगा। राजा ने इसे ब्राह्मण का शाप समझ कर उसके परिवार को कुल्लू में ‘बजीरी लग’ और ‘सारी’ के भाग भूमि दान के रूप में दे दिए।

करतार सेन ( 1520 ई.) :-

करतार सेन ने 1520 ई. में अपनी राजधानी लोहरा से करतारपुर स्थानांतरित की। करतारपुर को वर्तमान में पुरानानगर कहा जाता है। करतारसेन के बाद अर्जुन सेन राजा बना जो कुल्लू के राजा जगत सिंह का समकालीन था।

अर्जुनसेन :-

अर्जुन सेन कुल्लू के राजा बहादुर सिंह का समकालीन था। उस समय ‘बजीरी रूपी’ का क्षेत्र सुकेत के अधीन था। इसके समय बजीरी रूपी के जमींदार सुकेत को छोड़कर कुल्लू की अधिपत्य में मिल गया। अर्जुनसेन के दुर्व्यवहार से बहुत राणा ठाकुर रुष्ट हो गए। मंडी के राज्य ने भी इसके समय अपनी शक्ति को बढ़ाया। सुकेत का बहुत भाग मंडी में मिल गया। उदय सेन उदय सेन ने ‘उदयपुर’ नाम का किला बनवाया।

श्याम सेन ( 1620 ई.) :-

श्यामसेन की दो रानियाँ थी। एक रानी ‘गुलेर’ से थी और दूसरी ‘बुशहर’ से। रानी गुलेर के दो पुत्र रामसेन और पृथ्वी सिंह और एक पुत्री जिसका विवाह कहलूर के राजा कल्याण चंद से किया था। रानी बुशहर के हरी सिंह नाम से एक पुत्र था। रानी बुशहर ने अपने पुत्र के लिए स्थान बनाने के उद्देश्य से मियाँ जुगानु के साथ मिलकर रामसेन को तहखाने में डाल दिया। राजा को जब पता चला तो बुशहरी रानी को सुकेत से निकाल दिया और मियाँ जघानु को मृत्यु दण्ड दे दिया।

मुगल सम्राट शाहजहाँ ने प्रसन्न होकर श्यामसेन को ‘खिल्लत’ प्रदान की और अपनी मुद्रा चलाने की आज्ञा दी। श्यामसेन का बिलासपुर (कहलूर) के राजा कल्याण चन्द (1630 ई. के आसपास) के साथ युद्ध हुआ था। कल्याण चंद की मृत्यु जिस स्थान पर हुई थी उसे ‘कल्याण चंद की देओरी’ कहा जाता था। सन 1641ई. में जगत सिंह ने स्वयं शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।

श्यामसेन को नूरपुर के राजा जगत सिंह की शिकायत पर मुगल सम्राट औरंगजेब ने दिल्ली बुलाकर कैद कर दिया। श्यामसेन ने माहूनाग से उसकी मुक्ति को प्रार्थना की जिसके बाद जगत सिंह के विद्रोह के कारण श्यामसेन की जेल से शीघ्र मुक्ति हो गई। श्याम सेन ने 400 रुपये वार्षिक कर पर माहूनाग मंदिर को जागीर दान में दे दी। श्यामसेन के बाद रामसेन ने माधोपुर में रामगढ़ दुर्ग बनवाया।

रामसेन :-

माधोपुर के लोगों को मण्डी के आक्रमण से बचाने के लिए रामसेन ने वहां पर एक किला बनवाया और उसका नाम अपने नाम पर ‘रामगढ़’ रखा। राजा रामसेन को अपनी बहन की पवित्रता पर संदेह था, अत: शक के आधार पर उसे पांगणा भेज दिया जहाँ राजकुमारी ने आधारहीन आरोपों के चलते जहर खाकर आत्महत्या कर ली। उसके बाद राजा पागल हो गया और उसकी मृत्यु हो गई।

जीत सेन (1663 ई.) :-

वह मण्डी के राजा श्याम सेन (1664-79), सिद्ध सेन (1684-1720) का समकालीन था। जीत सेन मण्डी के राजा श्याम सेन को ‘ठीकर नाथ’ कहता था। मण्डी के राजा श्याम सेन ने ‘लोहारा’ नामक स्थान पर जीत सेन को पराजित किया था। सिद्ध सेन ने कहलूर के राजा भीमचंद की सहायता से सुकेत पर आक्रमण कर ‘हाटली धार’ और ‘वीरकोट’ का किला छीन लिया था।

गरूणसेन (1721-1748 ई.) :-

जीत सेन की मृत्यु के बाद श्याम सेन की बुशहरी रानी के पुत्र हरि सिंह का पौत्र गरूर सेन गद्दी पर बैठा। गरूर सेन ने सुन्दरनगर (बनेड प्राचीन नाम) शहर की स्थापना की जिसे विक्रमसेन द्वितीय ने राजधानी बनाया। गरूर सेन की रानी ने सूरजकुण्ड मंदिर का निर्माण करवाया। 1748 ई. में गरूर सेन की मृत्यु हो गई।

भीकम सेन / विक्रमसेन (1748-1762 ई.) :-

विक्रमसेन के समय 1752 ई. में अहमद शाह दुर्रानी ने सुकेत रियासत पर कब्जा किया। 1758 ई. में अदीना बेग ने सुकेत रियासत पर कब्जा किया। सुकेत रियासत पर विक्रमसेन के समय में सर्वप्रथम सिख शासन 1758 ई. में जस्सा सिंह रामगढ़िया ने स्थापित किया। सन 1762 ई. में राजा विक्रमसेन की मृत्यु के बाद रणजीत सेन गद्दी पर बैठा।

रणजीत सेन (1762 -1791 ई.) :-

रणजीत सेन ने मण्डी से नाचन आदि क्षेत्रों को वापिस लेने का प्रयत्न किया जिस पर मण्डी के राजा सिद्ध सेन ने अधिकार कर लिया था। रणजीत सेन के समय जह सिंह कन्हैया (1775-1786 ई. तक) ने सुकेत रियासत को अपने अधीन रखा। रणजीत सेन का अपने भाई किशन सिंह से बैर था जो संसार चंद का ससुर था। उसके समय नरपत नाम का वजीर था जिसका संबंध रणजीत सेन के पुत्र विक्रमसेन से अच्छा नहीं था इसलिए विक्रमसेन सुकेत छोड़ काँगड़ा के महलमोरियो चला गया।

विक्रमसेन द्वितीय (1791-1838 ई.) :-

राजा के वजीर नरपत के साथ संबंध अच्छे नहीं थे। इसलिए विक्रमसेन 1786 ई. से 1792 ई. तक महलमोरियों में रहे। अपने पिता की मृत्यु के बाद विक्रमसेन ने सर्वप्रथम नरपत वजीर को ‘बंटवारा किले’ में कैद कर मरवा दिया। विक्रमसेन ने बनेड़ (सुंदर नगर) को अपनी नई राजधानी बनाया। सुकेत रियासत 1809 ई. में विक्रमसेन के समय में महाराजा रणजीत सिंह के अधीन आ गई। विलियम मूरक्रॉफ्ट ने 1820 ई. में सुकेत रियासत की यात्रा की।

विक्रमसेन ने अपने चाचा किशनसिंह के साथ मिलकर मण्डी के छ: दुर्गों पर कब्जा कर लिया था। विक्रमसेन के समय पन्नू वजीर मण्डी से युद्ध लड़ते हुए मारा गया था। मण्डी का राजा ईश्वरी सेन था जिसे संसार चंद ने 12 वर्ष तक ‘नदौन’ में बंदी बनाकर रखा था। अमरसिंह थापा ने सुकेत से हटली और वीर कोट किले छीन लिए थे।

विक्रमसेन ने अपने कार्यकाल में पाली और दूदार किले बनाये थे। रणजीत सिंह ने 11 हजार रुपये में सुकेत रियासत की गोरखों के विरुद्ध मदद की थी जिसके बाद सुकेत रियासत सिक्खों के अधीन आ गई।

उग्रसेन (1838-76 ई.) :-

उग्रसेन ने चार शादियां की थी। उग्रसेन के समय 1839 ई. में विग्ने ने सुकेत की यात्रा की। रणजीत सिंह के पोते नौनिहाल सिंह ने 1840 ई. में जनरल वन्चूरा के नेतृत्व में सुकेत रियासत पर कब्जा कर लिया। उग्रसेन ने 1846 ई. में सिखों को राज्य से निकालकर ब्रिटिश सत्ता की अधीनता स्वीकार कर ली। 1846 ई. में सुकेत रियासत अंग्रेजों के अधीन आ गई। उग्रसेन के वजीर नरोत्तम ने दुर्गा मंदिर का निर्माण करवाया। वह नरसिंह मंदिर का भी वजीर था। उग्रसेन ने अमला विमला में शिवमंदिर का निर्माण किया। 1876 ई. में उग्रसेन की मृत्यु हुई। अक्तूबर, 1846 ई. को उग्रसेन को सनद प्रदान की गई थी।

रुद्रसेन (1876 ई.) :-

अपने पिता की मृत्यु का पता जब रुद्रसेन को लगा तो वह हरिपुर से सुकेत चला गया। जालंधर के कमिश्नर कर्नल डेविस ने उसे राजगद्दी पर बैठाया। उसने धुंगल को फिर से वजीर नियुक्त किया। उसने माल गुजारी कर दर की चार रूपये से आठ रूपये प्रति खार (8 क्विंटल के लगभग ) कर दी। यह राजकर ‘ढाल’ कहलाती थी। समय के साथ उग्रसेन का शासन अधिक से अधिक दमनात्मक बनता गया। जमीदारों पर कर बढ़ा दिए गए। 1879 ई. में रुद्रसेन होशियारपुर चला गया जहाँ 1887 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

दुष्ट निकंदन सेन (1879-1908 ई.) :-

दुष्टनिकंदन सेन के समय 1893 ई. में भोजपुर में स्कूल, वनेड़ में पोस्ट ऑफिस 1900 ई. में और टेलीग्रॉफ 1906 ई. में खोला गया। सतलुज नदी के ऊपर 1889 ई. में ज्युरी में पुल का निर्माण किया गया।

भीमसेन (1908-1919 ई.) :-

दुष्टनिकन्दन सेन के उपरांत उसका बड़ा पुत्र भीम सेन राजा बना। भीमसेन ने बनेड़ में किंग एडवर्ड अस्पताल खोला। उन्होंने मण्डी-सुकेत मोटर सड़क का निर्माण करवाया।

लक्ष्मणसेन (1919-1948 ई.) :-

लक्ष्मण सेन सुकेत रियासत का अंतिम राजा था। प्रथम नवम्बर, 1921 ई. को सुकेत रियासत पंजाब सरकार से ब्रिटिश भारत सरकार के अधीन आ गई। फरवरी, 1948 ई. में पण्डित पद्मदेव के नेतृत्व में सुकेत सत्याग्रह हुआ जिसके बाद सुकेत रियासत का विलय भारत में हो गया। मण्डी और सुकेत रियासत को मिलाकर 15 अप्रैल, 1948 ई. को मण्डी जिले का निर्माण किया गया।

मण्डी रियासत का इतिहास – History of Mandi Riyasat in Hindi

ब्यास घाटी के राज्यों में से मंडी एक महत्वपूर्ण राज्य था। इसका इतिहास मध्यकाल से आरम्भ होता है। मण्डी रियासत की स्थापना सुकेत रियासत के राजा साहूसेन के छोटे भाई बाहूसेन ने 1000 ई. में की। बाहूसेन और साहूसेन के बीच अच्छे संबंध नहीं थे जिस कारण बाहूसेन ने सुकेत रियासत को छोड़कर मंगलोर (कुल्लू) में मण्डी रियासत की नींव रखी। बाहूसेन ने हाट (कुल्लू) में राजधानी स्थापित की।

बाणसेन-बाहूसेन की 11वीं पीढ़ी के राजा करंचन सेन 1278 ई. के आसपास मंगलोर युद्ध में कुल्लू के राजा द्वारा मारे गए। करंचन सेन की गर्भवती पत्नी ने अपने पिता के अधिकार क्षेत्र वाले सिओकोट मण्डी में बान (ओक) के वृक्ष के नीचे एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम बाणसेन रखा गया। क्योंकि वह बानवृक्ष के नीचे पैदा हुआ था। बाणसेन के नाना की कोई संतान नहीं थी, इसलिए बाणसेन सिओकोट का मुखिया बना।

बाणसेन :-

बाणसेन ने 13वीं-14वीं सदी में मण्डी के भियूली में अपनी राजधानी बनाई। बाणसेन ने पराशर झील के पास पराशर मंदिर का निर्माण करवाया। मण्डी में मण्डी रियासत की स्थापना का श्रेय बाणसेन को जाता है। जिसने अपनी राजधानी को मंगलोर से भियूली में स्थानांतरित किया। बाणसेन ने 1278 ई. से 1340 ई. के मध्य शासन किया। बाणसेन के पुत्र कल्याणसेन ने मण्डी शहर के पास बटाहुली में राजधानी को स्थानांतरित किया।

कल्याणसेन :-

कल्याणसेन ने सुकेत के एक समान्त राणा से व्यास नदी के किनारे पर ‘बटाहुली’ (आज की पुरानी मंडी) नामक स्थान को अपने लिए मोल लिया और वहां पर एक महल वनवाया और उसे अपनी राजधानी बनाया।

अजबर सेन (1527 ई.) :-

अजबर सेन 1527 ई. में मण्डी के राजा बने। अजबर सेन ने 1527 ई. में मण्डी शहर की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया। अजबर सेन ने मण्डी शहर में भूतनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। अजबर सेन की रानी सुलताना देवी ने मण्डी का त्रिलोकीनाथ मंदिर बनवाया। अजबर सेन की 1534 ई. में मृत्यु हुई। मण्डी शहर का नाम ‘माण्डव्य ऋषि’ के नाम पर पड़ा है। अजबरसेन ने ‘कमलाह’ और ‘कलार’ को भी अपने राज्य में मिलाया था। अजबर सेन ने 35 वर्ष तक राज किया।

साहिब सेन (1554-75 ई.) :-

साहिब सेन का विवाह बिलासपुर की राजकुमारी प्रकाश देवी से हुआ था। वह बहुत दूरदर्शी और चतुर थी। उसका साहिब सेन पर भी बड़ा प्रभाव था। राजा ने उसके कहने पर 1554 के आसपास द्रंग की नमक की खानों पर कब्जा कर लिया (द्रंग के राणा से)। वह अकबर का समकालीन मण्डी का राजा था। साहिब सेन ने कुल्लू के राजा प्रताप सिंह के साथ मिलकर लग के राणा जयचंद को हराकर ‘सिराज-मण्डी’ पर कब्जा कर लिया। चौहार में हुरंग के देवता नारायण देव की कृपा से साहिब सेन को पुत्र हुआ जिसका नाम उसने नारायण सेन रखा।

नारायण सेन (1575-95 ई.) :-

नारायण सेन के बारे में कहते है की उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था। उसके समय में मण्डी में एक सिद्ध ‘चुन्नी-मुन्नी’ आया। उसने नारायण सेन की चिकित्सा करके उसे पूरी तरह से ठीक कर दिया। नारायण सेन ने सुकेत के राजा उदय सेन से बहुत सा भाग जीतकर राज्य की सीमा बल्ह और लोहारू तक फैला ली थी। उसने वहां एक नारायण गढ़ किला भी बनवाया।

केशव सेन :-

केशव सेन के समय मंडी मुगलों के अधीन आई लेकिन उन्होंने राज्य के आंतरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। केशव सेन के समय में कोई भी उल्लेखनीय घटना नहीं हुई।

हरिसेन (1623 ई.) :-

हरिसेन नूरपुर के राजा जगत सिंह का समकालीन मण्डी का राजा था। हरिसेन ने अपने पिता केशव सेन की स्मृति में वरशिला में एक स्मारक खड़ा किया।

सूरजसेन (1637-64 ई.) :-

राजा हरिसेन की मृत्यु के उपरांत 1637 ई. सूरजसेन जब गद्दी पर बैठा तो वह नाबालिक था। उसकी बाल्य अवस्था में प्रशासन का कार्यभार ‘करोड़िया खत्री’ के हाथों में रहा। सूरजसेन से पूर्व केशवसेन के समय मण्डी मुगलों के नियंत्रण में आ गई थी। सूरजसेन ने 1625 ई. में कमलाहगढ़ किला बनवाया। सूरजसेन ने मण्डी में दमदमा महल का निर्माण करवाया। सूरजसेन ने 18 पुत्रों की मृत्यु के बाद माधोराय की चाँदी की प्रतिमा 16 मार्च, 1648 ई. में स्थापित करवाई। मण्डी शिवरात्रि मेले में रथयात्रा का आरंभ इसी तिथि से माना जाता है क्योंकि इस दिन सर्वप्रथम मण्डी शिवरात्रि में माधोराय के रथ की शोभायात्रा निकाली गई थी।

सूरजसेन की रानी ने नरयाल लाला को अपना धर्म भाई बनाया था। बंगाहल और कुल्लू की सेनाओं ने सूरजसेन को युद्ध में परास्त किया और मण्डी के शाहपुर, कर्णपुर और शमशेरपुर किलों पर अधिकार कर लिया। गुलेर के राजा मानसिंह ने भी सूरजसेन को पराजित किया व दो बार मण्डी में लूटपाट की। उसने कमलाहगढ़ किले पर भी कब्जा कर लिया।

सूरजसेन ने जालपू वजीर की मदद से अनंतपुर के राणा को नरीपुरी मंदिर में मरवा दिया। रानी ने जालपू को शाप दिया क्योंकि उसने धर्म बहन बनाकर उसके पति को मरवा दिया था। सूरजसेन का विवाह नूरपुर के राजा जगत सिंह की पुत्री से हुआ जिसके बदले उसे दहेज में संधोल प्राप्त हुआ। सूरजसेन ने माधोराय को मण्डी रियासत का कुल देवता बनाया तथा राजगद्दी उन्हें समर्पित कर दी।

श्यामसेन (1664-1679 ई.) :-

श्यामसेन सूरजसेन का भाई था। श्यामसेन ने गद्दी पर बैठने के वर्ष भर के ही भीतर कुल्लू पर आक्रमण करके उसका एक किला अपने अधिकार में ले लिया। उसने मण्डी में श्यामा काली मंदिर का निर्माण तारनाधार में करवाया। श्याम सेन ने सुकेत के राजा जीत सेन को पराजित कर लौहरा गढ़ पर अधिकार कर लिया। जीतसेन को मण्डी के सैनिक ‘नयना कटोच’ ने पकड़ लिया व उसके मुकुट को छीनकर श्यामसेन को भेंट किया। श्यामसेन ने उसे द्रंग की नमक खान से प्रतिवर्ष आठ भार नमक बिना मूल्य ले जाने की अनुमति दी। श्यामसेन ने लोहारा किले में ‘हेरबा सिंह’ को किलेदार रखा। सुकेत और मण्डी रियासत हमेशा बल्ह घाटी क्षेत्र पर कब्जे के लिए एक दूसरे से लड़ती रहती थी।

राजा गोर सेन :-

श्यामसेन के बाद राजा गोर सेन गद्दी पर बैठा। राजा ने कहलूर के साथ संधि कर ली, जिसके आधार पर मंडी और काँगड़ा के बीच ‘हटोली’ की लड़ाई में कहलूर ने मंडी का साथ दिया था। राजा ने सुकेत से ध्यारा, बीड़ा, और पतरी क्षेत्र भी मंडी में मिला लिए।

सिद्धसेन (1684-1727 ई.) :-

मण्डी के राजाओं में सिद्धसेन एक योग्य एवं कुशल योद्धा माना जाता है। सिद्धसेन के शासनकाल में गुरु गोविंद सिंह मण्डी आए थे। सिद्धसेन ने बंगाहल के राजा पृथ्वीपाल की हत्या दमदमा महल के भीतर करवा दी। सिद्धसेन ने 1695 ई. में सरखपुर किला बनवाया था। सिद्धसेन ने सिद्ध गणेश, त्रिलोकनाथ पंचवक्त्र और सिद्ध जालपा मंदिरों का निर्माण करवाया।

सिद्धसैन ने अपने पिता के रखैल पुत्र मियाँ जप्पू को अपना वजीर नियुक्त किया जो एक कुशल प्रशासक और चतुर राजनीतिज्ञ था। वह प्रशासन का सारा कार्यभार देखता था। उसने मण्डी में जमीन बंदोबस्त करवाया जो 200 वर्षों तक (1917 तक) चला। सिद्धसेन ने सुकेत के नाचन, हाटली, दलेल (1688 ई. में), सरखपुर, शिवपुर किले (1690 ई. में) माधोपुर (1699) रायपुर (1698) क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।

सिद्ध सेन बंगाहल के पृथ्वीपाल का ससुर था जिसकी हत्या उसने ‘दमदमा महल’ में कर दी थी। पृथ्वीपाल की बहन का विवाह कुल्लू के राजा मानसिंह से हुआ था। सिद्धसेन ने कुल्लू पर भी आक्रमण किया। सिद्धसेन ने मियाँ बीरू सिंह को अपना सेनापति नियुक्त किया था।

शमशेर सेन (1727-81 ई.) :-

सिद्धसेन के पुत्र शिव ज्वाला सेन की मृत्यु 1722 ई. में हो गई थी इसलिए 1727 ई. में सिद्धसेन के बाद उसका पौत्र शमशेर सेन पाँच वर्ष की आयु में मण्डी का राजा बना। उसके भाई का नाम ‘धूल चटिया’ था। बाल्यावस्था में राज्य का कार्यभार मियाँ जप्पु (वजीर) रानी हटली (शमशेर सेन की माँ) की सहायता से चलाता था। शमशेर सेन ने कुल्लू पर आक्रमण कर ‘चौहार’ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था।

रानी हटली ने हरिदास और धर्मनाथ के साथ मिलकर जणू की हत्या करवा दी थी जिससे राजा क्रोधित हो गया। शमशेर सेन ने धर्मनाथ को प्राणदण्ड दिया, रानी डर के कारण मण्डी छोड़ ‘घासणू’ में रहने लगी। शमशेर सेन ने अपने भाई ‘धूल चाटिया’ को वजीर बनाया। शमशेर सेन का पुत्र सूरमा सेन था। शमशेर सेन के समय जस्सा सिंह रामगढ़िया और जय सिंह कन्हैया के प्रभाव में मण्डी रहा। शमशेर सेन की 54 वर्ष राज करने के पश्चात् 1781 ई. में मृत्यु हुई।

सूरमा सेन (1781-88 ) :-

सुरमा सेन को राज गद्दी पर बैठने से पहले ही मण्डी की राजनीति का कड़ा अनुभव हो चुका था। इसलिए सूरमा सेन ने अपने संबंधियों तथा मियाँ लोगो को राज्य के काम-काज से पृथक कर दिया जिससे वे लोग प्रभावहीन हो गए तथा दूसरे कर्मचारियों में राजा का डर फैल गया। उसने ‘चुप रहना सिद्धांत’ अपनाकर अपने दरबारियों तथा अधिकारियों में इस सिद्धांत को विकसित करने का प्रयत्न किया। बैरागी राम को वजीर बनाया गया। सूरमा सेन के समय कुल्लू का राजा प्रीतम सिंह था। सुकेत का राजा रणजीत सेन सूरमा सेन का समकालीन था। सूरमा सेन की 1788 ई. में मृत्यु हो गई।

ईश्वरी सेन (1788-1826 ई.) :-

सूरमा सेन की मृत्यु के समय ईश्वरी सेन की आयु चार वर्ष की थी। इसलिए प्रशासन का कार्यभार बजीर बैरागी राम के हाथों में ही रहा। बजीर बैरागी के कहने पर 1792 ई. में काँगड़ा के राजा संसार चंद ने मंडी राज्य पर चढ़ाई कर दी। सुकेत के राजा ने स्वाधीनता स्वीकार कर ली, जिससे प्रसन्न होकर संसार चंद ने उसे ‘हटली’ का भाग दे दिया। ‘चौहार‘ का भाग कुल्लू को दिया और अनंतपुर का क्षेत्र अपने पास रखा। केवल कमलाह किला ही रह गया जिस पर संसार चंद कब्ज़ा न कर सका

ईश्वरी सेन को संसार चंद ने 12 वर्ष तक नादौन में कैद रखा जिन्हें 1805 ई. में गोरखों ने आजाद करवाया। मण्डी रियासत 1809 ई. में सिक्खों के अधीन आ गई। विलियम मूरक्रॉफ्ट ने ईश्वरी सेन के समय 1820 ई. में मण्डी की यात्रा की। ईश्वरी सेन के बाद जालिमसेन 1823 ई. में मण्डी का राजा बना।

संसार चंद कमलाह किले पर कब्जा नहीं कर पाया था। मण्डी से कर वसूलने के लिए रणजीत सिंह ने खुशहाल सिंह को नियुक्त किया गया। ईश्वरी सेन के समय बुशहर के राजा उग्रसिंह ने मण्डी में शरण ली थी (गोरखों से बचने के लिए)। नागपुर के भूतपूर्व राजा अप्पा साहब भी 1822 से 1826 तक मण्डी में रहे थे।

जालिम सेन (1826-39 ई.) :-

ईश्वरी सेन की कोई वैध संतान नहीं थी। ईश्वरी सेन की चार अवैध संतानें थीं-मियाँ रतन सेन, कपूर सेन, बलवीर सेन तथा भाग सेन। ईश्वरी सेन के बाद उसका भाई जालिम सेन मण्डी का राजा बना। जालिम सेन को सिक्ख दरबार में अब 50 हजार के बजाय 75 हजार रुपये वार्षिक कर के तौर पर देने थे जिसके लिए उसने लोगों को कर देने के लिए बाध्य किया। उसने लेहना सिंह से साँठ-गाँठ कर कुल्लू के थारा और रघुपुर क्षेत्र पर कब्जा कर लिया

जालिम सेन ने ईश्वरी सेन के तीसरे रखैल पुत्र बलवीर सेन (अपने भतीजे) की राज्य प्रशासन का कार्य सौंपा। जालिम सेन के समय में मण्डी और कहलूर के बीच ‘सुलपुर’ क्षेत्र के लिए झगड़ा हुआ। उस झड़प में दोनों के सेना अध्यक्ष मारे गए और सुलपुर का भाग मंडी के हाथों में रहा। लॉर्ड विग्ने 1839 ई. में मण्डी आये। जालिम सेन की 1839 ई. में मृत्यु के बाद बलवीर सेन मण्डी का राजा बना।

बलवीर सेन (1839 ई.) :-

जालिम सेन के बाद बलवीर सेन 1839 ई. को मंडी का राजा बना। उस समय उसकी आयु 22 वर्ष थी। बलबीर सेन ईश्वरी सेन के पुत्र थे । महाराजा रणजीत सिंह के पोते नौनिहाल सिंह ने 1840 ई. में जनरल वचूरा (फ्रांसीसी) के नेतृत्व में मण्डी रियासत पर आक्रमण कर मण्डी शहर और कमलाहगढ़ दुर्ग पर कब्जा कर लिया। 1840 ई. में बलवीर सेन को कैद कर अमृतसर के गोविंदगढ़ किले में रखा गया। मण्डी रियासत 9 मार्च, 1846 ई. को ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में आ गई। बलबीर सेन की मृत्यु 1851 ई. में हुई। बलवीर सेन के समय गोसाऊं वजीर ने अलीवाल (1846 ई.) के युद्ध में भाग लिया। अंग्रेजी सरकार ने 24 अक्तूबर, 1846 ई. राजा बलवीर सेन को सनद प्रदान कर मण्डी का राजा स्वीकार किया था।

विजय सेन ( 1851-1902 ई.) :-

राजा बलवीर सेन की मृत्यु के समय उसके पुत्र विजय सेन की आयु चार वर्ष की थी। गोसाऊं वजीर और मियां भाग सिंह के देखरेख में 4 वर्ष की आयु में विजय सेन मण्डी का राजा बना। पुरोहित शिवशंकर विजय सेन की शिक्षा का कार्यभार अच्छी तरह नहीं संभाल सके जिसके बाद 1863 ई. में मि. क्लार्क को राजा को शिक्षा के लिए नियुक्त किया गया।

1857 के विद्रोह में मदद के लिए विजय सेन को 1864 में अंग्रेजी सरकार ने 11 तोपों की सलामी दी। लार्ड मायो 1871 ई. में मण्डी आए। विजय सेन ने 1872 ई. में पालमपुर दरबार में भाग लिया। सर हेनरी डेविस ने 1874 ई. में मण्डी की यात्रा की। राजा विजय सेन ने 1877 ई. में दिल्ली दरबार में भाग लिया व उसकी याद में 1878 में व्यास तट पर विक्टोरिया सस्पेंशन ब्रिज का निर्माण करवाया। उसने उहल नदी पर 1881 ई. में सस्पेंशन पुल का निर्माण करवाया।

चार्ल्स एचिन्सन ने 1883 ई. में मण्डी की यात्रा की। विजय सेन के समय मियाँ उत्तम सिंह वजीर थे। उसके बाद मियाँ ज्वालासिंह और मियाँ उधमसिंह वजीर बने। मण्डी-कुल्लू सड़क का निर्माण 1881 ई. में किया गया। 1901 ई. में पादाजीवानंद को जोधपुर से बुलाकर वजीर नियुक्त किया गया। उन्हें रायबहादुर को उपाधि प्रदान की गई। विजय सेन की 1902 ई. में मृत्यु हो गई। लार्ड एल्गिन ने 1899 ई. में मण्डी की यात्रा की। लाला लाजपत राय 1906 ई. में मण्डी आए।

भवानी सेन (1903-12 ई.) :-

राजा विजय सेन की रानी से कोई संतान नहीं थी। जब उसकी मृत्यु हुई तो अंग्रेजी सरकार ने उसके रखैल पुत्र कुंवर भवानी सेन को उत्तराधिकारी मान लिया। पंजाब के ले. गवर्नर सर चार्ल्स रिवाज ने 1903 ई. को भवानी सेन को गद्दी पर बैठाया। भवानी सेन 1905 ई. में प्रिंस ऑफ वेल्स से मिलने लाहौर गए। लार्ड किचनर भी 1905 ई. के आसपास मण्डी आये। भवानी सेन ने 1906 ई. में दरबार हाल बनवाया। भवानी सेन के समय 1909 में शोभाराम (सरकाघाट) ने विद्रोह किया।

राजा भवानी सेन वजीर पाधा जीवा नद के हाथों को कठपुतली थे जो राज्य में मनमाना कार्य करवाते थे। कर्नल एच.एस. डेविस ने शोभाराम के विद्रोह को दबाकर उसे कैद कर काला पानी भेज दिया तथा पाधा जीवानंद की जगह उत्तम सिंह वजीर के पुत्र इन्द्रसिंह को वजीर नियुक्त किया। जार्ज पंचम (इंग्लैण्ड के सम्राट) के सम्मान में दिसम्बर, 1911 में आयोजित दिल्ली दरबार में भवानी सेन ने भाग लिया। दिल्ली दरबार से लौटने के बाद फरवरी, 1912 में राजा को केवल 29 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।

जोगेन्द्रसेन (1913-48 ई.) :-

राजा भवानी सेन के कोई संतान नहीं थी। इसलिए स्वर्गीय राजा के निकट संबंधी मियाँ किशन सिंह के पुत्र जोगेन्द्रसेन को पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर सर लुईस डेन ने गद्दी पर बैठाया। वह मण्डी रियासत के अंतिम शासक थे। उस समय उसकी आयु केवल साढ़े आठ वर्ष थी। राजा जोगेन्द्र सेन को नाईटहुड (IKCSI) की उपाधि से अलंकृत किया गया था। जोगेन्द्र सेन की शिक्षा ‘क्वीन मैरी कॉलेज’ एचचिसन लाहौर में हुई। गार्डन वाकर को मण्डी का सुपरिन्टेन्डेन्ट नियुक्त किया गया। वर्ष 1916 में एच.डब्ल्यू. एमर्सन को मण्डी का सुपरिन्टेन्डेन्ट बनाया गया।

वर्ष 1914 में मण्डी के हरदेव जो ‘स्वामी कृष्णानंद’ कहलाये उन्होंने गदर पार्टी के सदस्य मण्डी में बनाये। भाई हिरदया राम को लाहौर षड्यंत्र केस में पथरा दास के साथ फाँसी की सजा दी गई जिसे बाद में काले पानी में बदल दिया गया। पहले मण्डी षड्यंत्र में मियाँ जवाहर सिंह और रानी खैरगढ़ी को दोषी ठहराया गया। मियाँ जवाहर सिंह को आजीवन कारावास देकर कालापानी भेज दिया गया।

रानी (मण्डी) खैरगढ़ी को देश से निकालने की सजा दी गई वह लखनऊ चली गई। मण्डी षड्यंत्र के मुख्य दोषी सिद्ध खराड़ा भाग निकला। बाद में उसे पकड़कर काला पानी भेज दिया गया। 8 मार्च, 1948 को अंतिम राजा जोगेंद्र सेन ने राज्य की अलग पहचान ‘राजकीय चिन्ह‘ को समाप्त कर दिया।

1948 ई. पहाड़ी राज्यों के एकीकरण के समय समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के पश्चात 15 अप्रैल, 1948 ई. में मण्डी का हिमाचल प्रदेश में विलय कर दिया, जिससे जिला मंडी का उदय हुआ। राजा जोगेन्दर सेन 1952 से 1956 तक ब्राजील में भारत के राजदूत रहे। 1957 से 1962 तक मंडी संसदीय लोकसभा सीट से लोकसभा के सदस्य रहे।

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